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शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

निर्मला


BIRENDRA KUMAR CHAUSA
I COY 34 PAC VARANASI


प्रेमचंद

निर्मला
इसकी सूचना ने अज्ञान बलिका को मुंह ढांप कर एक कोने में बिठा रखा है। उसके हृदय में एक विचित्र शंका समा गई है, रो-रोम में एक अज्ञात भय का संचार हो गया है, न जाने क्या होगा। उसके मन में वे उमंगें नहीं हैं, जो युवतियों की आंखों में तिरछी चितवन बनकर, ओंठों पर मधुर हास्य बनकर और अंगों में आलस्य बनकर प्रकट होती है। नहीं वहां अभिलाषाएं नहीं हैं वहां केवल शंकाएं, चिन्ताएं और भीरू कल्पनाएं हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है।
     कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आयेंगे, नाच होगा-यह जानकर प्रसन्न है और यह भी जानती है कि बहन सबके गले मिलकर रोयेगी, यहां से रो-धोकर विदा हो जायेगी, मैं अकेली रह जाऊंगी- यह जानकर दु:खी है, पर यह नहीं जानती कि यह इसलिए हो रहा है, माताजी और पिताजी क्यों बहन को इस घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की, क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी ये लोग निकाल देंगे? मैं भी इसी तरह कोने में बैठकर रोऊंगी और किसी को मुझ पर दया न आयेगी? इसलिए वह भयभीत भी हैं।
     संध्या का समय था, निर्मला छत पर जानकर अकेली बैठी आकाश की और तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता था  पंख होते, तो वह उड़ जाती और इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहनें कहीं सैर करने जाया करती थीं। बग्घी खाली न होती, तो बगीचे में ही टहला करतीं, इसलिए कृष्णा उसे खोजती फिरती थी, जब कहीं न पाया, तो छत पर आई और उसे देखते ही हंसकर बोली-तुम यहां आकर छिपी बैठी हो और मैं तुम्हें ढूंढती फिरती हूं। चलो, बग्घी तैयार करा आयी हूं।
     निर्मला- ने उदासीन भाव से कहा-तू जा, मैं न जाऊंगी।
     कृष्णा-नहीं मेरी अच्छी दीदी, आज जरूर चलो। देखो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है।
     निर्मला-मेरा मन नहीं चाहता, तू चली जा।
क्रमश: 

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