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वि
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वाह का विलाप और अनाथों का रोना सुनाकर
हम पाठकों का दिल न दुखायेंगे। जिसके ऊपर पड़ती है, वह
रोता है, विलाप करता है, पछाड़ें खाता है। यह कोई नयी बात नहीं।
हां, अगर आप चाहें तो
कल्याणी की उस घोर मानसिक यातना का अनुमान कर सकते हैं, जो उसे इस विचार से हो रही थी कि मैं ही
अपने प्राणाधार की घातिका हूं। वे वाक्य जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुख से
निकले थे, अब उसके हृदय को
वाणों की भांति छेद रहे थे। अगर पति ने उसकी गोद में कराह-कराहकर प्राण-त्याग दिए
होते, तो उसे संतोष होता कि
मैंने उनके प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया। शोकाकुल हृदय को इससे ज्यादा
सान्त्वना और किसी बात से नहीं होती। उसे इस विचार से कितना संतोष होता कि मेरे
स्वामी मुझसे प्रसन्न गये, अन्तिम समय तक उनके
हृदय में मेरा प्रेम बना रहा। कल्याणी को यह सन्तोष न था। वह सोचती थी-हा! मेरी
पचीस बरस की तपस्या निष्फल हो गई। मैं अन्त समय अपने प्राणपति के प्रेम के वंचित
हो गयी। अगर मैंने उन्हें ऐसे कठोर शब्द न कहे होते, तो
वह कदापि रात को घर से न जाते।न जाने उनके मन में क्या-क्या विचार आये हों? उनके मनोभावों की
कल्पना करके और अपने अपराध को बढ़ा-बढ़ाकर वह आठों पहर कुढ़ती रहती थी। जिन बच्चों
पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती।
इन्हीं के कारण मुझे अपने स्वामी से रार मोल लेनी पड़ी। यही मेरे शत्रु हैं। जहां
आठों पहर कचहरी-सी लगी रहती थी, वहां अब खाक उड़ती
है। वह मेला ही उठ गया। जब खिलानेवाला ही न रहा, तो
खानेवाले कैसे पड़े रहते। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दर सभी भांजे-भतीजे बिदा हो
गये। जिनका दावा था कि हम पानी की जगह खून बहानेवालों में हैं, वे ऐसा सरपट भागे कि पीछे फिरकर भी न
देखा। दुनिया ही दूसरी हो गयी। जिन बच्चों को देखकर प्यार करने को जी चाहता था
उनके चेहरे पर अब मक्खियां भिनभिनाती थीं। न जाने वह कांति कहां चली गई?
शोक
का आवेग कम हुआ, तो निर्मला के विवाह
की समस्या उपस्थित हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई कि विवाह इस साल रोक दिया जाये, लेकिन कल्याणी ने कहा- इतनी तैयरियों के
बाद विवाह को रोक देने से सब किया-धरा मिट्टी में मिल जायेगा और दूसरे साल फिर यही
तैयारियां करनी पड़ेंगी, जिसकी कोई आशा नहीं।
विवाह कर ही देना अच्छा है। कुछ लेना-देना तो है ही नहीं। बारातियों के
सेवा-सत्कार का काफी सामान हो चुका है, विलम्ब करने में
हानि-ही-हानि है। अतएव महाशय भालचन्द्र को शक-सूचना के साथ यह सन्देश भी भेज दिया
गया। कल्याणी ने अपने पत्र में लिखा-इस अनाथिनी पर दया कीजिए और डूबती हुई नाव को
पार लगाइये। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएं थीं, किंतु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अब
मेरी लाज आपके हाथ है। कन्या आपकी हो चुकी। मैं लोगों के सेवा-सत्कार करने को अपना
सौभाग्य समझती हूं, लेकिन यदि इसमें कुछ
कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े, तो मेरी दशा का विचार करके क्षमा
कीजियेगा। मुझे विश्वास है कि आप इस अनाथिनी की निन्दा न होने देंगे, आदि।
कल्याणी
ने यह पत्र डाक से न भेजा, बल्कि पुरोहित से
कहा-आपको कष्ट तो होगा, पर आप स्वयं जाकर यह
पत्र दीजिए और मेरी ओर से बहुत विनय के साथ कहियेगा कि जितने कम आदमी आयें, उतना ही अच्छा। यहां कोई प्रबन्ध
करनेवाला नहीं है।
पुरोहित
मोटेराम यह सन्देश लेकर तीसरे दिन लखनऊ जा पहुंचे।
संध्या
का समय था। बाबू भालचन्द्र दीवानखाने के सामने आरामकुर्सी पर नंग-धड़ंग लेटे हुए
हुक्का पी रहे थे। बहुत ही स्थूल, ऊंचे कद के आदमी थे।
ऐसा मालूम होता था कि काला देव है या कोई हब्शी अफ्रीका से पकड़कर आया है। सिर से
पैर तक एक ही रंग था-काला। चेहरा इतना स्याह था कि मालूम न होता था कि माथे का अंत
कहां है सिर का आरम्भ कहां। बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी। आपको गर्मी बहुत सताती थी।
दो आदमी खड़े पंखा झल रहे थे, उस पर भी पसीने का
तार बंधा हुआ था। आप आबकारी के विभाग में एक ऊंचे ओहदे पर थे। पांच सौ रूपये वेतन
मिलता था। ठेकेदारों से खूब रिश्वत लेते थे। ठेकेदार शराब के नाम पानी बेचें, चौबीसों घंटे दुकान खुली रखें, आपको केवल खुश रखना काफी था। सारा कानून
आपकी खुशी थी। इतनी भयंकर मूर्ति थी कि चांदनी रात में लोग उन्हें देख कर सहसा
चौंक पड़ते थे-बालक और स्त्रियां ही नहीं, पुरूष तक सहम जाते
थे। चांदनी रात इसलिए कहा गया कि अंधेरी रात में तो उन्हें कोई देख ही न सकता
था-श्यामलता अन्धकार में विलीन हो जाती थी। केवल आंखों का रंग लाल था। जैसे पक्का
मुसलमान पांच बार नमाज पढ़ता है, वैसे ही आप भी पांच
बार शराब पीते थे, मुफ्त की शराब तो
काजी को हलाल है, फिर आप तो शराब के
अफसर ही थे, जितनी चाहें पियें, कोई हाथ पकड़ने वाला न था। जब प्यास
लगती शराब पी लेते । जैसे कुछ रंगों में परस्पर सहानुभूति है, उसी तरह कुछ रंगों में परस्पर विरोध है।
लालिमा के संयोग से कालिमा और भी भयंकर हो जाती है।
बाबू
साहब ने पंडितजी को देखते ही कुर्सी से उठकर कहा-अख्खाह! आप हैं? आइए-आइए। धन्य भाग!
अरे कोई है। कहां चले गये सब-के-सब, झगडू, गुरदीन, छकौड़ी, भवानी, रामगुलाम
कोई है? क्या सब-के-सब मर
गये! चलो रामगुलाम, भवानी, छकौड़ी,
गुरदीन, झगड़ू। कोई नहीं
बोलता, सब मर गये! दर्जन-भर
आदमी हैं, पर मौके पर एक की भी
सूरत नहीं नजर आती, न जाने सब कहां गायब
हो जाते हैं। आपके वास्ते कुर्सी लाओ।
बाबू
साहब ने ये पांचों नाम कई बार दुहराये, लेकिन यह न हुआ कि
पंखा झलनेवाले दोनों आदमियों में से किसी को कुर्सी लाने को भेज देते। तीन-चार
मिनट के बाद एक काना आदमी खांसता हुआ आकर बोला-सरकार, ईतना की नौकरी हमार कीन न होई ! कहां तक
उधार-बाढ़ी लै-लै खाई मांगत-मांगत थेथर होय गयेना।
भाल-
बको मत, जाकर कुर्सी लाओ। जब
कोई काम करने की कहा गया, तो रोने लगता है।
कहिए पडितजी, वहां सब कुशल है?
मोटेराम-क्या
कुशल कहूं बाबूजी, अब कुशल कहां? सारा घर मिट्टी में
मिल गया।
इतने
में कहार ने एक टूटा हुआ चीड़ का सन्दूक लाकर रख दिया और बोला-कर्सी-मेज हमारे
उठाये नाहीं उठत है।
पंडितजी
शर्माते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाये और कल्याणी का पत्र बाबू
साहब के हाथ में रख दिया।
भाल-अब
और कैसे मिट्टी में मिलेगा?
इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी? बाबू
उदयभानु लाल से मेरी पुरानी
दोस्ती थी। आदमी नहीं, हीरा था! क्या दिल
था, क्या हिम्मत थी, (आंखें पोंछकर) मेरा तो जैसे दाहिना हाथ
ही कट गया। विश्वास मानिए, जबसे यह खबर सुनी है, आंखों में अंधेरा-सा छा गया है। खाने
बैठता हूं, तो कौर मुंह में नहीं
जाता। उनकी सूरत आंखों के सामने खड़ी रहती है। मुंह जूठा करके उठ जाता हूं। किसी
काम में दिल नहीं लगता। भाई के मरने का रंज भी इससे कम ही होता है। आदमी नहीं, हीरा था!
मोटे-
सरकार, नगर में अब ऐसा कोई
रईस नहीं रहा।
भाल-
मैं खूब जानता हूं, पंडितजी, आप मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी
लाख-दो-लाख में एक होता है। जितना मैं उनको जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता। दो-ही-तीन
बार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया और मरने दम तक रहूंगा। आप समधिन साहब से कह
दीजिएगा, मुझे दिली रंज है।
मोटे-आपसे
ऐसी ही आशा थी! आज-जैसे सज्जनों के दर्शन दुर्लभ हैं। नहीं तो आज कौन बिना दहेज के
पुत्र का विवाह करता है।
भाल-महाराज, देहज की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरूषों से
नहीं की जाती। उनसे सम्बन्ध हो जाना ही लाख रूपये के बराबर है। मैं इसी को अपना
अहोभाग्य समझता हूं। हा! कितनी उदार आमत्मा थी। रूपये को तो उन्होंने कुछ समझा ही
नहीं, तिनके के बराबर भी
परवाह नहीं की। बुरा रिवाज है, बेहद बुरा! मेरा बस
चले, तो दहेज लेनेवालों और
दहेज देनेवालों दोनों ही को गोली मार दूं, हां साहब, साफ गोली मार दूं, फिर चाहे फांसी ही क्यों न हो जाय! पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे
बेचते हैं? अगर आपको लड़के के
शादी में दिल खोलकर खर्च करने का अरमान है,
तो
शौक के खर्च कीजिए, लेकिन जो कुछ कीजिए, अपने बल पर। यह क्या कि कन्या के पिता
का गला रेतिए। नीचता है, घोर नीचता! मेरा बस
चले, तो इन पाजियों को
गोली मार दूं।
मोटे-
धन्य हो सरकार! भगवान् ने आपको बड़ी बुद्धि दी है। यह धर्म का प्रताप है। मालकिन
की इच्छा है कि विवाह का मुहूर्त वही रहे और तो उन्होंने सारी बातें पत्र में लिख
दी हैं। बस, अब आप ही उबारें तो
हम उबर सकते हैं। इस तरह तो बारात में जितने सज्जन आयेंगे, उनकी सेवा-सत्कार हम करेंगे ही, लेकिन परिस्थिति अब बहुत बदल गयी है
सरकार, कोई करने-धरनेवाला
नहीं है। बस ऐसी बात कीजिए कि वकील साहब के नाम पर बट्टा न लगे।
भालचन्द्र
एक मिनट तक आंखें बन्द किये बैठे रहे, फिर एक लम्बी सांस
खींच कर बोले-ईश्वर को मंजूर ही न था कि वह लक्ष्मी मेरे घर आती, नहीं तो क्या यह वज्र गिरता? सारे मनसूबे खाक में
मिल गये। फूला न समाता था कि वह शुभ-अवसर निकट आ रहा है, पर क्या जानता था कि ईश्वर के दरबार में
कुछ और षड्यन्त्र रचा जा
रहा है। मरनेवाले की याद ही रूलाने के लिए काफी है। उसे देखकर तो जख्म और भी हरा
जो जायेगा। उस दशा में न जाने क्या कर बैठूं। इसे गुण समझिए, चाहे दोष कि जिससे एक बार मेरी घनिष्ठता
हो गयी, फिर उसकी याद चित्त
से नहीं उतरती। अभी तो खैर इतना ही है कि उनकी सूरत आंखों के सामने नाचती रहती है, लेकिन यदि वह कन्या घर में आ गयी, तब मेरा जिन्दा रहना कठिन हो जायेगा। सच
मानिए, रोते-रोते मेरी आंखें
फूट जायेंगी। जानता हूं, रोना-धोना व्यर्थ है।
जो मर गया वह लौटकर नहीं आ सकता। सब्र करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है, लेकिन दिल से मजबूर हूं। उस अनाथ
बालिका को देखकर मेरा कलेजा फट जायेगा।
मोटे-
ऐसा न कहिए सरकार! वकील साहब नहीं तो क्या,
आप
तो हैं। अब आप ही उसके पिता-तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है। आपके हृदय के भाव तो कोई
जानता नहीं, लोग समझेंगे, वकील साहब का देहान्त हो जाने के कारण
आप अपने वचन से फिर गये। इसमें आपकी बदनामी है। चित्त को समझाइए और हंस-खुशी कन्या
का पाणिग्रहण करा लीजिए। हाथी मरे तो नौ लाख का। लाख विपत्ति पड़ी है, लेकिन मालकिन आप लोगों की सेवा-सत्कार
करने में कोई बात न उठा रखेंगी।
बाबू
साहब समझ गये कि पंडित मोटेराम कोरे पोथी के ही पंडित नहीं, वरन व्यवहार-नीति में भी चतुर हैं।
बोले-पंडितजी, हलफ से कहता हूं, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है, लेकिन जब ईश्वर को मंजूर नहीं है, तो मेरा क्या बस है? वह मृत्यु एक प्रकार
की अमंगल सूचना है, जो विधाता की ओर से
हमें मिली है। यह किसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी है विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा
है कि यह विवाह मंगलमय न होगा। ऐसी दशा
में आप ही सोचिये, यह संयोग कहां तक
उचित है। आप तो विद्वान आदमी हैं। सोचिए, जिस काम का आरम्भ ही
अमंगल से हो, उसका अंत अमंगलमय हो
सकता है? नहीं, जानबूझकर मक्खी नहीं निगली जाती। समधिन
साहब को समझाकर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञापालन
करने को तैयार हूं, लेकिन इसका परिणाम
अच्छा न होगा। स्वार्थ के वंश में होकर मैं अपने परम मित्र की सन्तान के साथ यह
अन्याय नहीं कर सकता।
इस
तर्क ने पडितजी को निरुत्तर कर दिया। वादी ने यह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी। शत्रु ने
उन्हीं के हथियार से उन पर वार किया था और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे। वह अभी
कोई जवाब सोच ही रहे थे, कि बाबू साहब ने फिर
नौकरों को पुकारना शुरू किया- अरे, तुम सब फिर गायब हो
गये- झगडू, छकौड़ी, भवानी, गुरूदीन, रामगुलाम! एक भी नहीं बोलता, सब-के-सब मर गये। पंडितजी के वास्ते पानी-वानी की
फिक्र है? ना जाने इन सबों को
कोई कहां तक समझये। अक्ल छू तक नहीं गयी। देख रहे हैं कि एक महाशय दूर से
थके-मांदे चले आ रहे हैं, पर किसी को जरा भी
परवाह नहीं। लाओं, पानी-वानी रखो।
पडितजी, आपके लिए शर्बत
बनवाऊं या फलाहारी मिठाई मंगवा दूं।
मोटेरामजी
मिठाइयों के विषय में किसी तरह का बन्धन न स्वीकार करते थे। उनका सिद्धान्त था कि
घृत से सभी वस्तुएं पवित्र हो जाती हैं। रसगुल्ले और बेसन के लड्डू उन्हें बहुत
प्रिय थे, पर शर्बत से उन्हें
रुचि न थी। पानी से पेट भरना उनके नियम के विरूद्ध था। सकुचाते हुए बोले-शर्बत
पीने की तो मुझे आदत नहीं, मिठाई खा लूंगा।
भाल-
फलाहारी न?
मोटे-
इसका मुझे कोई विचार नहीं।
भाल-
है तो यही बात। छूत-छात सब ढकोसला है। मैं स्वयं नहीं मानता। अरे, अभी तक कोई नहीं आया? छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रामगुलाम, कोई तो बोले!
अबकी
भी वही बूढ़ा कहार खांसता हुआ आकर खड़ा हो गया और बोला-सरकार, मोर तलब दै दीन जाय। ऐसी नौकरी मोसे न
होई। कहां लो दौरी दौरत-दौरत गोड़ पिराय लागत है।
भाल-काम
कुछ करो या न करो, पर तलब पहिले चहिए!
दिन भर पड़े-पड़े खांसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़
रही है। जाकर बाजार से एक आने की ताजी मिठाई ला। दौड़ता हुआ जा।
कहार
को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गये और स्त्री से बोले-वहां से एक पंडितजी आये
हैं। यह खत लाये हैं, जरा पढ़ो तो।
पत्नी
जी का नाम रंगीलीबाई था। गोरे रंग की प्रसन्न-मुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे
विदा हो रहे थे, पर किसी प्रेमी मित्र
की भांति मचल-मचल कर तीस साल तक जिसके गले से लगे रहे, उसे छोड़ते न बनता था।
रंगीलीबाई
बैठी पान लगा रही थीं। बोली-कह दिया न कि हमें वहां ब्याह करना मंजूर नहीं।
भाल-हां, कह तो दिया, पर मारे संकोच के मुंह से शब्द न निकलता
था। झूठ-मूठ का होला करना पड़ता।
रंगीली-साफ
बात करने में संकोच क्या?
हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का
कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस
हजार नगद मिल रहे हैं;
तो वहां क्यों न करूं?
उनकी लड़की कोई सोने की थोड़े ही है। वकील साहब जीते होते तो शरमाते-शमाते पन्द्रह-बीस
हजार दे मरते। अब वहां क्या रखा है?
भाल- एक दफा जबान
देकर मुकर जाना अच्छी बात नहीं। कोई मुख से कुछ न कह, पर बदनामी हुए बिना नहीं रहती। मगर
तुम्हारी जिद से मजबूर हूं।
रंगीलीबाई
ने पान खाकर खत खोला और पढ़ने लगीं। हिन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो बिल्कुल न
था और यद्यपि रंगीलीबाई भी शायद ही कभी किताब पढ़ती हों, पर खत-वत पढ़ लेती थीं। पहली ही पांति
पढ़कर उनकी आंखें सजल हो गयीं और पत्र समाप्त किया। तो उनकी आंखों से आंसू बह रहे
थे-एक-एक शब्द करूणा के रस में डूबा हुआ था। एक-एक अक्षर से दीनता टपक रही थी।
रंगीलीबाई की कठोरता पत्थर की नहीं, लाख की थी, जो एक ही आंच से पिघल जाती है। कल्याणी
के करूणोत्पादक शब्दों ने उनके स्वार्थ-मंडित हृदय को पिघला दिया। रूंधे हुए कंठ
से बोली-अभी ब्राह्मण बैठा है न?
भालचन्द्र
पत्नी के आंसुओं को देख-देखकर सूखे जाते थे। अपने ऊपर झल्ला रहे थे कि नाहक मैंने
यह खत इसे दिखाया। इसकी जरूरत क्या थी? इतनी बड़ी भूल उनसे कभी न हुई थी। संदिग्ध भाव से बोले-शायद
बैठा हो, मैंने तो जाने को कह
दिया था। रंगीली ने खिड़की से झांककर देखा। पंडित मोटेराम जी बगुले की तरह ध्यान
लगाये बाजार के रास्ते की ओर ताक रहे थे। लालसा में व्यग्र होकर कभी यह पहलू बदलते, कभी वह पहलू। ‘एक आने की मिठाई’ ने तो आशा की कमर ही
तोड़ दी थी, उसमें भी यह विलम्ब, दारूण दशा थी। उन्हें बैठे देखकर
रंगीलीबाई बोली-है-है अभी है, जाकर कह दो, हम विवाह करेंगे, जरूर करेंगे। बेचारी बड़ी मुसीबत में
है।
भाल-
तुम कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती हो,
अभी
उससे कह आया हूं कि मुझे विवाह करना मंजूर नहीं। एक लम्बी-चौड़ी भूमिका बांधनी
पड़ी। अब जाकर यह संदेश कहूंगा, तो वह अपने दिल में
क्या कहेगा, जरा सोचो तो? यह शादी-विवाह का
मामला है। लड़कों का खेल नहीं कि अभी एक बात तय की, अभी
पलट गये। भले आदमी की बात न हुई, दिल्लगी हुई।
रंगीली-
अच्छा, तुम अपने मुंह से न
कहो, उस ब्राह्मण को मेरे
पास भेज दो। मैं इस तरह समझा दूंगी कि तुम्हारी बात भी रह जाये और मेरी भी। इसमें
तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है।
भाल-तुम
अपने सिवा सारी दुनिया को नादान समझती हो। तुम कहो या मैं कहूं, बात एक ही है। जो बात तय हो गयी, वह हो गई, अब
मैं उसे फिर नहीं उठाना चाहता। तुम्हीं तो बार-बार कहती थीं कि मैं वहां न करूंगी।
तुम्हारे ही कारण मुझे अपनी बात खोनी पड़ी। अब तुम फिर रंग बदलती हो। यह तो मेरी
छाती पर मूंग दलना है। आखिर तुम्हें कुछ तो मेरे मान-अपमान का विचार करना चाहिए।
रंगीली- तो मुझे क्या
मालूम था कि विधवा की दशा इतनी हीन हो गया है? तुम्हीं ने तो कहा था कि उसने पति की सारी सम्पत्ति छिपा रखी
है और अपनी गरीबी का ढोंग रचकर काम निकालना चाहती है। एक ही छंटी औरत है। तुमने जो
कहा, वह मैंने मान लिया।
भलाई करके बुराई करने में तो लज्जा और संकोच है। बुराई करके भलाई करने मे कोई
संकोच नहीं। अगर तुम ‘हां’ कर आये होते और मैं ‘नहीं’ करने को कहती, तो तुम्हारा संकोच उचित था। ‘नहीं’ करने के बाद ‘हां’ करने में तो अपना
बड़प्पन है।
भाल-
तुम्हें बड़प्पन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापन ही
मालूम होता है। फिर तुमने यह कैसे मान लिया कि मैंने वकीलाइन में विषय में जो बात
कही थी, वह झूठी थी! क्या वह
पत्र देखकर? तुम जैसी खुद सरल हो, वैसे ही दूसरे को भी सरल समझती हो।
रंगीली-
इस पत्र में बनावट नहीं मालूम होती। बनावट की बात दिल में चुभती नहीं। उसमें बनावट
की गन्ध अवश्य रहती है।
भाल-
बनावट की बात तो ऐसी चुभती है कि सच्ची बात उसके सामने बिल्कुल फीकी मालूम होती
है। यह किस्से-कहानियां लिखने वाले जिनकी किताबें पढ़-पढ़कर तुम घण्टों रोती हो, क्या सच्ची बातें लिखते है? सरासर झूठ का तूमार
बांधते हैं। यह भी एक कला है।
रंगीली-
क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते
हो! दाई से पेट छिपाते हो?
मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूं, तो तुम समझते हो, इसे चकमा दिया। मगर मैं तुम्हारी एक-एक
नस पहचानती हूं। तुम अपना ऐब मेरे सिर मढ़कर खुद
बेदाग बचना चहाते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूं, जब वकील साहब जीते थे, जो तुमने सोचा था कि ठहराव की जरूरत ही
कया है, वे खुद ही जितना उचित समेझेंगे देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और भी ज्यादा मिलने
की आशा होगी। अब जो वकील साहब का देहान्त हो गया,
तो तरह-तरह के हीले-हवाले करने लगे। यह भलमनसी नहीं, छोटापन
है, इसका इलजाम भी
तुम्हारे सिर है। मै। अब शादी-ब्याह के नगीच न जाऊंगी। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो। ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है।
जो बात करो, सफाई से करो, बुरा हो या अच्छा। ‘हाथी के दांत खाने के
और दिखाने के और’ वाली नीति पर चलना
तुम्हें शोभा नहीं देता। बोला आब भी वहां शादी करते हो या नहीं?
भाला-
जब मैं बेईमान, दगाबाज और झूठा ठहरा, तो मुझसे पूछना ही क्या! मगर खूब
पहचानती हो आदमियों को! क्या कहना है, तुम्हारी इस सूझ-बूझ
की, बलैया ले लें!
रंगीली-
हो बड़े हयादार, ब भी नहीं शरमाते।
ईमान से कहा, मैंने बात ताड़ ली कि नहीं?
भाल-अजी जाओ, वह दूसरी औरतें होती हैं जो मर्दों को
पहचानती हैं। अब तक मैं यही समझता था कि औरतों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, पर आज यह विश्वास उठ गया और महात्माओं ने
औरतों के विषय में जो तत्व की बाते कही है, उनको मानना पड़ा।
रंगीली-
जरा आईने में अपनी सूरत तो देख आओं, तुम्हें मेरी कमस है।
जरा देख लो, कितना झेंपे हुए हो।
भाल-
सच कहना, कितना झेंपा हुआ हूं?
रंगीली-
इतना ही, जितना कोई भलामानस
चोर चोरी खुल जाने पर झेंपता है।
भाल-
खैर, मैं झेंपा ही सही, पर शादी वहां न होगी।
रंगीली-
मेरी बला से, जहां चाहो करो। क्यों, भुवन से एक बार क्यों नहीं पूछ लेते?
भाल-
अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा।
रंगीली-
जरा भी इशारा न करना!
भाल-
अजी, मैं उसकी तरफ ताकूंगा
भी नहीं।
संयोग
से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुंचा। ऐसे सुन्दर, सुडौल, बलिष्ठ युवक कालेजों में बहुत कम देखने
में आते हैं। बिल्कुल मां को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रंग, वही पतले-पतले गुलाब की पत्ती के-से ओंठ, वही चौड़ा, माथा, वही
बड़ी-बड़ी आंखें, डील-डौल बाप का-सा
था। ऊंचा कोट, ब्रीचेज, टाई,
बूट, हैट उस पर खूब ल रहे थे। हाथ में एक
हाकी-स्टिक थी। चाल में जवानी का गरूर था, आंखों में आमत्मगौरव।
रंगीली
ने कहा-आज बड़ी देर लगाई तुमने?
यह देखो, तुम्हारी ससुराल से
यह खत आया है। तुम्हारी सास ने लिखा है। साफ-साफ बतला दो, अभी सबेरा है। तुम्हें वहां शादी करना
मंजूर है या नहीं?
भुवन-
शादी करनी तो चाहिए अम्मां, पर मैं करूंगा नहीं।
रंगीली-
क्यों?
भुवन-
कहीं ऐसी जगह शादी करवाइये कि खूब रूपये मिलें। और न सही एक लाख का तो डौल हो।
वहां अब क्या रखा है? वकील साहब रहे ही
नहीं, बुढ़िया के पास अब
क्या होगा?
रंगीली-
तुम्हें ऐसी बातें मुंह से निकालते शर्म नहीं आती?
भुवन-
इसमें शर्म की कौन-सी बात है?
रूपये किसे काटते हैं?
लाख रूपये तो लाख जन्म में भी न जमा कर पाऊंगा। इस साल पास भी हो गया, तो कम-से-कम पांच साल तक रूपये से सूरत नजर
न आयेगी। फिर सौ-दो-सौ रूपये महीने कमाने लगूंगा। पांच-छ: तक पहुंचते-पहुंचते उम्र
के तीन भाग बीत जायेंगे। रूपये जमा करने की नौबत ही न आयेगी। दुनिया का कुछ मजा न
उठा सकूंग। किसी धनी की लड़की से शादी हो जाती,
तो
चैन से कटती। मैं ज्यादा नहीं चाहता, बस एक लाख हो या फिर
कोई ऐसी जायदादवाली बेवा मिले, जिसके एक ही लड़की
हो।
रंगीली-
चाहे औरत कैसे ही मिले।
भूवन-
धन सारे ऐबों को छिपा देगा। मुझे वह गालियां भी सुनाये, तो भी चूं न करूं। दुधारू गाय की लात
किसे बुरी मालूम होती है?
बाबू
साहब ने प्रशंसा-सूचक भाव से कहा-हमें उन लोगों के साथ सहानुभति है और दु:खी है कि
ईश्वर ने उन्हें विपत्ति में डाला, लेकिन बुद्धि से काम
लेकर ही कोई निश्चय करना चहिए। हम कितने ही फटे-हालों जायें, फिर भी अच्छी-खासी बारात हो जायेगी।
वहां भोजन का भी ठिकाना नहीं। सिवा इसके कि लोग हंसें और कोई नतीजा न निकलेगा।
रंगीली-
तुम बाप-पूत दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। दोनों उस गरीब लड़की के गले पर
छुरी फेरना चाहते हो।
भुवन-जो
गरीब है, उसे गरीबों ही के
यहां सम्बन्ध करना चहिए। अपनी हैसियत से बढ़कर.....।
रंगीली-
चुप भी रह, आया है वहां से
हैसियत लेकर। तुम कहां के धन्ना-सेठ हो? कोई आदमी द्वारा पर आ जाये, तो
एक लोटे पानी को तरस जाये। बड़े हैसियतवाले बने हो!
यह
कहकर रंगीली वहां से उठकर रसोई का प्रबन्ध करने चली गयी।
भुवनमोहन
मुस्कराता हुआ अपने कमरे में चला गया और बाबू साहब मूछों पर ताव देते हुए बाहर आये
कि मोटेराम को अन्तिम निश्चय सुना दें। पर उनका कहीं पता न था।
मोटेरामजी
कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने में बहुत
देर हुई, तो उनसे बैठा न गया।
सोचा यहां बैठे-बैठे काम न चलेगा, कुछ उद्योग करना
चाहिए। भाग्य के भरोसे यहां अड़ी किये बैठे रहें, तो
भूखों मर जायेंगे। यहां तुम्हारी दाल नहीं गलने की। चुपके से लकड़ी उठायी और जिधर
वह कहार गया था, उसी तरफ चले। बाजार
थोड़ी ही दूर पर था, एक क्षण में जा
पहुंचे। देखा, तो बुड्ढा एक हलवाई
की दूकान पर बैठा चिलम पी रहा था। उसे देखते ही आपने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा-अभी
कुछ तैयार नहीं है क्या महरा?
सरकार वहां बैठे बिगड़ रहे हैं कि जाकर सो गया या ताड़ी पीने लगा। मैंने कहा-‘सरकार यह बात नहीं, बुढ्डा
आदमी है, आते ही आते तो आयेगा।’ बड़े विचित्र जीव
हैं। न जाने इनके यहां कैसे नौकर टिकते हैं।
कहार-मुझे
छोड़कर आज तक दूसरा कोई टिका नहीं, और न टिकेगा। साल-भर
से तलब नहीं मिली। किसी को तलब नहीं देते। जहां किसी ने तलब मांगी और लगे डांटने।
बेचारा नौकरी छोड़कर भाग जाता है। वे दोनों आदमी, जो
पंखा झल रहे थे, सरकारी नौकर हैं।
सरकार से दो अर्दली मिले हैं न! इसी से पड़े हुए हैं। मैं भी सोचता हूं, जैसा तेरा ताना-बाना वैसे मेरी भरनी! इस
साल कट गये हैं, साल दो साल और इसी
तरह कट जायेंगे।
मोटेराम-
तो तुम्हीं अकेले हो? नाम तो कई कहारों का
लेते है।
कहार-
वह सब इन दो-तीन महीनों के अन्दर आये और छोड़-छोड़ कर चले गये। यह अपना रोब जमाने
को अभी तक उनका नाम जपा करते हैं। कहीं नौकरी दिलाइएगा, चलूं?
मोटेराम-
अजी, बहुत नौकरी है। कहार
तो आजकल ढूंढे नहीं मिलते। तुम तो पुराने आदमी हो,
तुम्हारे लिए नौकरी की क्या कमी है। यहां कोई ताजी चीज? मुझसे कहने लगे, खिचड़ी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैंने कह दिया-सरकार, बुढ्डा आदमी है, रात को उसे मेरा भोजन बनाने में कष्ट
होगा, मैं कुछ बाजार ही से
खा लूंगा। इसकी आप चिन्ता न करें। बोले, अच्छी बात है, कहार आपको दुकान पर मिलेगा। बोलो साहजी, कुछ तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम
होते हैं तौल दो एक सेर भर। आ जाऊं वहीं ऊपर न?
यह
कहकर मोटेरामजी हलवाई की दूकान पर जा बैठे और तर माल चखने लगे। खूब छककर खाया।
ढाई-तीन सेर चट कर गये। खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ करते जाते थे- शाहजी, तुम्हारी दूकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया। बनारसवाले ऐसे
रसगुल्ले नहीं बना पाते, कलाकन्द अच्छी बनाते हैं, पर तुम्हारी उनसे बुरी नहीं, माल डालने से अच्छी चीज नहीं बन जाती, विद्या चहिए।
हलवाई-कुछ
और लीजिए महाराज! थोड़ी-सी रबड़ी मेरी तरफ से लीजिए।
मोटेराम-इच्छा
तो नहीं है, लेकिन दे दो पाव-भर।
हलवाई-पाव-भर
क्या लीजिएगा? चीज अच्छी है, आध सेर तो लीजिए।
खूब इच्छापूर्ण भोजन
करके पंडितजी ने थोड़ी देर तक बाजार की सैर की और नौ बजते-बजते मकान पर आये। यहां
सन्नाटा-सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रही थी। अपने चबूतरे पर बिस्तर जमाया और सो
गये।
सबेरे
अपने नियमानुसार कोई आठ बजे उठे, तो देखा कि बाबूसाहब
टहल रहे हैं। इन्हें जगा देखकर वह पालागन कर बोले-महाराज, आज रात कहां चले गये? मैं बड़ी रात तक आपकी
राह देखता रहा। भोजन का सब सामान बड़ी देर तक रखा रहा। जब आज न आये, तो रखवा दिया गया। आपने कुछ भोजन किया
था। या नहीं?
मोटे-
हलवाई की दूकान में कुछ खा आया था।
भाल-
अजी पूरी-मिठाई में वह आनन्द कहां, जो बाटी और दाल में
है। दस-बारह आने खर्च हो गये होंगे, फिर भी पेट न भरा
होगा, आप मेरे मेहमान हैं, जितने पैसे लगे हों ले लीजिएगा।
मोटे-
आप ही के हलवाई की दूकान पर खाया था, वह जो नुक्कड़ पर
बैठता है।
भाल-
कितने पैसे देने पड़े?
मोटे-
आपके हिसाब में लिखा दिये हैं।
भाल-
जितनी मिठाइयां ली हों, मुझे बता दीजिए, नहीं तो पीछे से बेईमानी करने लगेगा। एक
ही ठग है।
मोटे-
कोई ढाई सेर मिठाई थी और आधा सेर रबड़ी।
बाबू
साहब ने विस्फरित नेत्रों से पंडितजी को देखा,
मानो
कोई अचम्भे की बात सुनी हो। तीन सेर तो कभी यहां महीने भर का टोटल भी न होता था और
यह महाशय एक ही बार में कोई चार रूपये का माल उड़ा गये। अगर एक आध दिन और रह गये, तो या बैठ जायेगी। पेट है या शैतान की
कब्र? तीन सेर! कुछ ठिकाना
है! उद्विग्न दशा में दौड़े हुए अन्दर गये और रंगीली से बोल-कुछ सुनती हो, यह महाशय कल तीन सेर मिठाई उड़ा गये।
तीन सेर पक्की तौल!
रंगीलीबाई
ने विस्मित होकर कहा-अजी नहीं, तीन सेर भला क्या खा
जायेगा! आदमी है या बैल?
भाल-
तीन सेर तो अपने मुंह से कह रहा है। चार सेर से कम न होगा, पक्की तौल!
रंगीली-
पेट में सनीचर है क्या?
भाल-
आज और रह गया तो छ: सेर पर हाथ फेरेगा।
रंगीली-
तो आज रहे ही क्यों, खत का जवाब जो देना
देकर विदा करो। अगर रहे तो साफ कह देना कि हमारे यहां मिठाई मुफ्त नहीं आती।
खिचड़ी बनाना हो, बनावे, नहीं तो अपनी राह ले। जिन्हें ऐसे
पेटुओं को खिलाने से मुक्ति मिलती हो, वे खिलायें हमें ऐसी
मुक्ति न चाहिये!
मगर
पंडित विदा होने को तैयार बैठे थे, इसलिए बाबूसाहब को
कौशल से काम लेने की जरूरत न पड़ी।
पूछा-
क्या तैयारी कर दी महाराज?
मोटे- हां सरकार, अब चलूंगा। नौ बजे की गाड़ी मिलेगी न?
भाल-
भला आज तो और रहिए।
यह
कहते-कहते बाबूजी को भय हुआ कि कहीं यह महाराज सचमुच न रह जायें, इसलिये वाक्य को यों पूरा किया- हां, वहां भी लोग आपका इन्तजार कर रहे होंगे।
मोटे-
एक-दो दिन की तो कोई बात न थी और विचार भी यही था कि त्रिवेणी का स्नान करूंगा, पर बुरा न मानिए तो कहूं, आप लोगों में ब्राह्राणों के प्रति
लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं है। हमारे जजमान हैं,
जो
हमारा मुंह जोहते रहते हैं कि पंडितजी कोई आज्ञा दें, तो उसका पालन करें। हम उनके द्वारा
पहुंच जाते हैं, तो वे अपना धन्य
भाग्य समझते हैं और सारा घर-छोटे से बड़े तक हमारी सेवा-सत्कार में मग्न हो जाते
हैं। जहां अपना आदर नहीं, वहां एक क्षण भी
ठहरना असह्राय है। जहां ब्रह्राण का आदर नहीं,
वहां
कल्याण नहीं हो सकता।
भाल-
महाराज, हमसे तो ऐसा अपराध
नहीं हुआ।
मोटे-
अपराध नहीं हुआ! और अपराध कहते किसे हैं? अभी आप ही ने घर में जाकर कहा कि यह महाशय तीन सेर मिठाई चट
कर गये, पक्की तौल। आपने अभी
खानेवाले देखे कहां? एक बार खिलाइये तो
आंखें खुल जायें। ऐसे-ऐसे महान पुरूष पड़े हैं,
जो
पसेरी भर मिठाई खा जायें और डकार तक न लें। एक-एक मिठाई खाने के लिए हमारी चिरौरी
की जाती है, रूपये दिये जाते हैं।
हम भिक्षुक ब्राह्राण नहीं हैं, जो आपके द्वार पर
पड़े रहें। आपका नाम सुनकर आये थे, यह न जानते थे कि
यहां मेरे भोजन के भी लाले पड़ेंगे। जाइये,
भगवान्
आपका कल्याण करें!
बाबू
साहब ऐसा झेंपे कि मुंह से बात न निकली। जिन्दगी भर में उन पर कभी ऐसी फटकार न
पड़ी थी। बहुत बातें बनायीं-आपकी चर्चा न थी,
एक
दूसरे ही महाशय की बात थी, लेकिन पंडितजी का
क्रोध शान्त न हुआ। वह सब कुछ सह सकते थे, पर अपने पेट की
निन्दा न सह सकते थे। औरतों को रूप की निन्दा जितनी प्रिय लगती है, उससे कहीं अधिक अप्रिय पुरूषों को अपने
पेट की निन्दा लगती है। बाबू साहब मनाते तो थे; पर धड़का भी समाया हुआ था कि यह टिक न जायें। उनकी कृपणता का
परदा खुल गया था, अब इसमें सन्देह न
था। उस पर्दे को ढांकना जरूरी था। अपनी कृपणता को छिपाने के लिए उन्होंने कोई बात
उठा न रखी पर होनेवाली बात होकर रही। पछता रहे थे कि कहां से घर में इसकी बात कहने
गया और कहा भी तो उच्च स्वर में। यह दुष्ट भी कान लगाये सुनता रहा, किन्तु अब पछताने से क्या हो सकता था? न जाने किस मनहूस की
सूरत देखी थी यह विपत्ति गले पड़ी। अगर इस वक्त यहां से रूष्ट होकर चला गया; तो वहां जाकर बदनाम
करेगा और मेरा सारा कौशल खुल जायेगा। अब तो इसका मुंह बन्द कर देना ही पड़ेगा।
यह
सोच-विचार करते हुए वह घर में जाकर रंगीलीबाई से बोले-इस दुष्ट ने हमारी-तुम्हारी
बातें सुन ली। रूठकर चला जा रहा है।
रंगीली-जब
तुम जानते थे कि द्वार पर खड़ा है, तो धीरे से क्यों न
बोले?
भाल-विपत्ति
आती है; तो अकेले नहीं आती।
यह क्या जानता था कि वह द्वार पर कान लगाये खड़ा है।
रंगीली-
न जाने किसका मुंह देख था?
भाल-वही
दुष्ट सामने लेटा हुआ था। जानता तो उधर ताकता ही नहीं। अब तो इसे कुछ दे-दिलाकर
राजी करना पड़ेगा।
रंगीली-
ऊंह, जाने भी दो। जब
तुम्हें वहां विवाह ही नहीं करना है, तो क्या परवाह है? जो चाहे समझे, जो चाहे कहे।
भाल-यों
जान न बचेगी। आओं दस रूपये विदाई के बहाने दे दूं। ईश्वर फिर इस मनहूस की सूरत न
दिखाये।
रंगीली
ने बहुत अछताते-पछताते दस रुपये निकाले और बाबू साहब ने उन्हें ले जाकर पंडितजी के
चरणों पर रख दिया। पंडितजी ने दिल में कहा-धत्तैरे मक्खीचूस की! ऐसा रगड़ा कि याद
करोगे। तुम समझते होगे कि दस रुपये देकर इसे उल्लू बना लूंगा। इस फेर में न रहना।
यहां तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। रुपये जेब में रख लिये और आशीर्वाद देकर अपनी
राह ली।
बाबू
साहब बड़ी देकर तक खड़े सोच रहे थे-मालूम नहीं,
अब
भी मुझे कृपण ही समझ रहा है या परदा ढंक गया। कहीं ये रुपये भी तो पानी में नहीं
गिर पड़े।