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वास्तु सिद्धान्तों के पालन से भवन की
मजबूती, निर्माण अथवा लागत में कोई अन्तर नहीं आता केवल दैनिक कार्यों के
स्थल को वास्तु अनुकूल दिशाओं में बनाना जरूरी होता है इस परिप्रेक्ष्य से
वास्तु को "अदृश्य या अप्रगट भवन निर्माण तकनीक"(Invisible architecture) भी कहा जाता है।
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आधुनिक आर्किटैक्ट एक वैभवपूर्ण मकान बना
सकते हैं परंतु उस मकान में रहने वालों के सुखद जीवन की गारंटी नहीं दे सकते
जबकि वास्तु-विज्ञान वास्तु अनुरूप बने मकान के रहवासियों व मालिक के शांति
पूर्ण, समृद्धिशाली एवं विकासपूर्ण जीवन की गारंटी देता है।
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ऊपर आकाश व नीचे पाताल को सम्मिलित करने
पर (Three dimension) 10 दिशाओं में पूरा
भूमंडल∕संसार व्याप्त है अथवा कहा जा सकता है कि पूरे विश्व को एक स्थल में
केन्द्र मानकर 10 दिशाओं में व्यक्त किया जा सकता है।
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अब तो जी.पी.एस. (Global Positioning System) पर आधारित
इलेक्ट्रोनिक कम्पास की सहायता से किसी भी वस्तु पर दिशाओं की निकटतम सही
जानकारी मिल सकती है।
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वास्तु से सर्वसाधारण मूलभूत नियम
वास्तु नियमों को समझाने हेतु हम वास्तु
को 3 भागों में विभक्त कर सकते हैं।
भूमि या भूखण्ड का वास्तु।
भवन का वास्तु।
आन्तरिक सज्जा का वास्तु।
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यदि भूखण्ड वर्गाकार या उसके निकटतम हो
तो सर्वोत्तम होता है।
यदि भूखण्ड आयताकार हो और उसकी चौड़ाई
तथा लम्बाई का अनुपात 1:2 तक हो तो वह शुभ होता है। चौड़ाई और लम्बाई का
अनुपात 1:1.6 श्रेष्ठ होता है।
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ईशान या उत्तर पूर्वी कोण समकोण या उससे
कम होना चाहिए, परंतु किसी भी हालत में 900 से अधिक नहीं
होना चाहिए।
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सामान्यतः उत्तर एवं पूर्व दिशा की ओर
मुखवाले प्लॉट शुभ होते हैं परंतु प्लाट की दिशा पर अधिक ध्यान न देते हुए
भूखण्ड के मुख्यद्वार एवं उस पर बनने वाले भवन की स्थिति पर अधिक ध्यान दिया
जाना चाहिए।
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भूमि का ढाल उत्तर या पूर्व की ओर शुभ
होता है।
भूखण्ड का उत्तर एवं पूर्वी भाग सबसे
नीचा होना चाहिए।
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दक्षिण या पश्चिम में यदि कोई टीला या
पहाड़ी हो तो शुभ होता है।
भूखण्ड के उत्तर, पूर्व या ईशान कोण में
तालाब, नदी अथवा जल स्रोत हो तो वह अत्यन्त शुभ होता है।
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पश्चिम, दक्षिण, नैऋत्य में कुआँ अत्यन्त
हानिकारक होता है।
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जहाँ तक संभव हो, प्रवेश द्वारा चौड़ाई
वाली दीवार से बनायें ताकि प्रवेश गहराई में हो।
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भवन यथासम्भव चारों ओर खुला स्थान छोड़कर
बनाना चाहिए।
भवन के पूर्व एवं उत्तर में
अधिक तथा दक्षिण व पश्चिम में कम जगह छोड़ना चाहिए।
भवन की ऊँचाई दक्षिण एवं पश्चिम में अधिक
होना चाहिए।
बहुमंजिला भवनों में छज्जा∕बालकनी, छत उत्तर एवं पूर्व की ओर छोड़ना
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ड्रेसिंग टेबल पूर्व या उत्तर की दीवाल
पर लगाना चाहिए। दर्पण केवल पूर्व या उत्तर की दीवार पर ही लगाना चाहिए।
शौचालय की सीट का उपयोग करते समय उत्तर
की तरफ मुँह होना श्रेष्ठ है परंतु मुँह पूर्व व पश्चिम में नहीं होना
चाहिए।
वॉश बेसिन व शावर (फुहारा) नहाने का नल
पूर्व या उत्तर की दीवार पर होना चाहिए।
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प्रश्नः क्या वास्तु किरायेदारों पर भी
असर करती है ?
उत्तरः "हाँ" वास्तु
वहाँ के सभी निवासियों, मकान मालिक व किरायेदारों दोनों को प्रभावित करती
है।
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पूर्व व उत्तर में ढाल।
ईशान में जल तत्त्व।
अग्नि कोण में रसोई घर व अग्नि तत्त्व।
पश्चिम व दक्षिण में रहने व सोने के कमरे।
नैऋत्य में मुख्य व्यक्ति का निवास।
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यदि किसी घर में वास्तुदोष पता नहीं हो
अथवा ऐसा वास्तुदोष हो जो ठीक करना संभव न हो तो उस मकान के चारों कोनों में
एक-एक कटोरी मोटा (ढेलावाला) नमक रखा जाय। प्रतिदिन कमरों में नमक के पानी
का अथवा गौमूत्र (अथवा गौमूत्र से निर्मित फिनाइल) का पौंछा लगाया जाय। इससे
ऋणात्मक ऊर्जाओं का प्रभाव कम हो जायेगा। जब नमक गीला हो जाये तो वह बदलते
रहना आवश्यक है। वास्तु दोष प्रभावित स्थल पर देशी गाय रखने से भी वास्तुदोष
का प्रभाव क्षीण होता है।
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ब्रह्मवेधः मुख्य द्वार के सामने
कोई तेलघानी, चक्की, धार तेज करने की मशीन आदि लगी हो तो ब्रह्मवेध कहलाती
है, इसके कारण जीवन अस्थिर व रहवासियों में मनमुटाव रहता है।
कीलवेधः मुख्य द्वार के सामने
गाय, भैंस, कुत्ते आदि को बाँधने के लिए खूँटे को कीलवेध कहते हैं, यह
रहवासियों के विकास में बाधक बनता है।
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मुख्य दिशाएँ वास्तु या मकान की मध्य रेखा से 22.5
अंश या ज्यादा घूमी हुई हो तो ऐसे वास्तु को विदिशा में बना मकान या वास्तु
कहा जाता है। ऐसे विदिशा मकान में वास्तु के उक्त सभी नियम व प्रभाव पूरी
तरह नहीं लागू होते।
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विद्युत-चुम्बकीय व अन्य अलफा, बीटा,
गामा रेडियो धर्मी तरंगों से बचाव व जानकारी हेतु परम्परागत वास्तु के
साथ-साथ नये वैज्ञानिक यंत्र डॉ. गास मीटर, एक्मोपोल, जीवनपूर्ति ऊर्जा
परीक्षक (Biofeed back
energy Tester) लेचर एंटीना, रेड-अलर्ट, उच्च व नीची आवृत्ति (Low and high frequency) की तरंगों व रेडियो
धर्मी तरंगों के मापक यंत्र आदि का उपयोग भी वास्तु सुधार में उल्लेखनीय
पाया गया है जो परम्परागत वास्तु के आधुनिक प्रगति के दुष्परिणामों से बचाव
के लिए हमें सावधान कर सकता है।
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