चन्द्र-तो चिढ़ती क्यों हो तुम भी बाजे
सुनना। ओ हो-हो! अब आप दुल्हन बनेंगी। क्यों किशनी, तू
बाजे सुनेगी न वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे।
कृष्णा-क्या
बैण्ड से भी अच्छे होंगे?
चन्द्र-हां-हां, बैण्ड से भी अच्छे, हजार गुने अच्छे, लाख गुने अच्छे। तुम जानो क्या एक बैण्ड
सुन लिया, तो समझने लगीं कि
उससे अच्छे बाजे नहीं होते। बाजे बजानेवाले लाल-लाल वर्दियां और काली-काली टोपियां
पहने होंगे। ऐसे खबूसूरत मालूम होंगे कि तुमसे क्या कहूं आतिशबाजियां भी होंगी, हवाइयां आसमान में उड़ जायेंगी और वहां
तारों में लगेंगी तो लाल, पीले, हरे,
नीले
तारे टूट-टूटकर गिरेंगे। बड़ा बजा आयेगा।
कृष्णा-और
क्या-क्या होगा चन्दन, बता दे मेरे भैया?
चन्द्र-मेरे
साथ घूमने चल, तो रास्ते में सारी
बातें बता दूं। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे कि देखकर तेरी आंखें खुल जायेंगी। हवा में
उड़ती हुई परियां होंगी, सचमुच की परियां।
कृष्णा-अच्छा चलो, लेकिन न बताओगे, तो मारूंगी।
चन्द्रभानू
और कृष्णा चले गए, पर निर्मला अकेली
बैठी रह गई। कृष्णा के चले जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ। कृष्णा, जिसे वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती
थी, आज इतनी निठुर हो गई।
अकेली छोड़कर चली गई। बात कोई न थी, लेकिन दु:खी हृदय
दुखती हुई आंख है, जिसमें हवा से भी
पीड़ा होती है। निर्मला बड़ी देर तक बैठी रोती रही। भाई-बहन, माता-पिता, सभी इसी भांति मुझे भूल जायेंगे, सबकी आंखें फिर जायेंगी, फिर शायद इन्हें देखने को भी तरस जाऊं।
बाग में फूल
खिले हुए थे। मीठी-मीठी सुगन्ध आ रही थी। चैत की शीतल मन्द समीर चल रही थी। आकाश
में तारे छिटके हुए थे। निर्मला इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी-पड़ी सो गई और आंख
लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में, विचरने लगा। क्या देखती है कि सामने एक नदी लहरें मार
रही है और वह नदी के किनारे नाव की बाठ देख रही है। सन्ध्या का समय है। अंधेरा
किसी भयंकर जन्तु की भांति बढ़ता चला आता है। वह घोर चिन्ता में पड़ी हुई है कि
कैसे यह नदी पार होगी, कैसे पहुंचूंगी! रो रही है कि कहीं रात न हो जाये, नहीं तो मैं अकेली यहां कैसे रहूंगी। एकाएक उसे एक सुन्दर
नौका घाट की ओर आती दिखाई देती है। वह खुशी से उछल पड़ती है और ज्योही नाव घाट पर
आती है, वह उस पर चढ़ने के लिए बढ़ती है, लेकिन ज्योंही नाव के पटरे पर पैर रखना चाहती है, उसका मल्लाह बोल उठता है-तेरे लिए यहां जगह नहीं है! वह
मल्लाह की खुशामद करती है, उसके पैरों पड़ती है, रोती है, लेकिन वह यह कहे जाता है, तेरे
लिए यहां जगह नहीं है। एक क्षण में नाव खुल जाती है। वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगती
है। नदी के निर्जन तट पर रात भर कैसे रहेगी, यह सोच वह नदी में कूद
कर उस नाव को पकड़ना चाहती है कि इतने में कहीं से आवाज आती है-ठहरो, ठहरो, नदी गहरी है, डूब
जाओगी। वह नाव तुम्हारे लिए नहीं है, मैं
आता हूं, मेरी नाव में बैठ जाओ। मैं उस पार पहुंचा दूंगा। वह भयभीत
होकर इधर-उधर देखती है कि यह आवाज कहां से आई? थोड़ी देर के बाद एक
छोटी-सी डोंगी आती दिखाई देती है। उसमें न पाल है, न
पतवार और न मस्तूल। पेंदा फटा हुआ है, तख्ते
टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है और एक आदमी उसमें से पानी उलीच रहा
है। वह उससे कहती है, यह तो टूटी हुई है, यह
कैसे पार लगेगी? मल्लाह कहता है- तुम्हारे लिए यही भेजी गई है, आकर बैठ जाओ! वह एक क्षण सोचती है-
इसमें बैठूं या न बैठूं? अन्त में वह निश्चय करती है- बैठ जाऊं। यहां अकेली पड़ी
रहने से नाव में बैठ जाना फिर भी अच्छा है। किसी भयंकर जन्तु के पेट में जाने से
तो यही अच्छा है कि नदी में डूब जाऊं। कौन जाने, नाव पार पहुंच ही जाये।
यह सोचकर वह प्राणों की मुट्ठी में लिए हुए नाव पर बैठ जाती है। कुछ देर तक नाव
डगमगाती हुई चलती है, लेकिन प्रतिक्षण उसमें पानी भरता जाता है। वह भी मल्लाह के
साथ दोनों हाथों से पानी उलीचने लगती है। यहां तक कि उनके हाथ रह जाते हैं, पर पानी बढ़ता ही चला जाता है, आखिर नाव चक्कर खाने लगती है, मालूम
होती है- अब डूबी, अब डूबी। तब वह किसी अदृश्य सहारे के लिए दोनों हाथ फैलाती
है, नाव नीचे जाती है और उसके पैर उखड़ जाते हैं। वह जोर से
चिल्लाई और चिल्लाते ही उसकी आंखें खुल गई। देखा, तो
माता सामने खड़ी उसका कन्धा पकड़कर हिला रही थी
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