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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

निर्मला





प्रेमचंद

निर्मला

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कृष्णा की आंखें डबडबा आई। कांपती हुई आवाज से बोली- आज तुम क्यों नहीं चलतीं मुझसे क्यों नहीं बोलतीं क्यों इधर-उधर छिपी-छिपी फिरती हो? मेरा जी अकेले बैठे-बैठे घबड़ाता है। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊगी। यहीं तुम्हारे साथ बैठी रहूंगी।

     निर्मला-और जब मैं चली जाऊंगी तब क्या करेगी? तब किसके साथ खेलेगी और किसके साथ घूमने जायेगी, बता?
     कृष्णा-मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अकेले मुझसे यहां न रहा जायेगा।
निर्मला मुस्कराकर बोली-तुझे अम्मा न जाने देंगी।
कृष्णा-तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नहीं देती कि मैं न जाउंगी।
     निर्मला- कह तो रही हूं, कोई सुनता है!
     कृष्णा-तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है?
     निर्मला-नहीं, मेरा घर होता, तो कोई क्यों जबर्दस्ती निकाल देता?
     कृष्णा-इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दी जाऊंगी?
     निर्मला-और नहीं क्या तू बैठी रहेगी! हम लड़कियां हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।
     कृष्णा-चन्दर भी निकाल दिया जायेगा?
     निर्मला-चन्दर तो लड़का है, उसे कौन निकालेगा?
     कृष्णा-तो लड़कियां बहुत खराब होती होंगी?
     निर्मला-खराब न होतीं, तो घर से भगाई क्यों जाती?
     कृष्णा-चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नहीं करतीं।
     एकाएक चन्दर धम-धम करता हुआ छत पर आ पहुंचा और निर्मला को देखकर बोला-अच्छा आप यहां बैठी हैं। ओहो! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दुल्हन बनेंगी, पालकी पर चढ़ेंगी, ओहो! ओहो!
     चन्दर का पूरा नाम चन्द्रभानु सिन्हा था। निर्मला से तीन साल छोटा और कृष्णा से दो साल बड़ा।
     निर्मला-चन्दरमुझे चिढ़ाओगे तो अभी जाकर अम्मा से कह दूंगी।
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