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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

nirmla

BIRENDRA KUMAR CHAUSA I COY 34 PAC VARANASI प्रेमचंद निर्मला चन्द्र-तो चिढ़ती क्यों हो तुम भी बाजे सुनना। ओ हो-हो! अब आप दुल्हन बनेंगी। क्यों किशनी, तू बाजे सुनेगी न वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे। कृष्णा-क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे? चन्द्र-हां-हां, बैण्ड से भी अच्छे, हजार गुने अच्छे, लाख गुने अच्छे। तुम जानो क्या एक बैण्ड सुन लिया, तो समझने लगीं कि उससे अच्छे बाजे नहीं होते। बाजे बजानेवाले लाल-लाल वर्दियां और काली-काली टोपियां पहने होंगे। ऐसे खबूसूरत मालूम होंगे कि तुमसे क्या कहूं आतिशबाजियां भी होंगी, हवाइयां आसमान में उड़ जायेंगी और वहां तारों में लगेंगी तो लाल, पीले, हरे, नीले तारे टूट-टूटकर गिरेंगे। बड़ा बजा आयेगा। कृष्णा-और क्या-क्या होगा चन्दन, बता दे मेरे भैया? चन्द्र-मेरे साथ घूमने चल, तो रास्ते में सारी बातें बता दूं। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे कि देखकर तेरी आंखें खुल जायेंगी। हवा में उड़ती हुई परियां होंगी, सचमुच की परियां। कृष्णा-अच्छा चलो, लेकिन न बताओगे, तो मारूंगी। चन्द्रभानू और कृष्णा चले गए, पर निर्मला अकेली बैठी रह गई। कृष्णा के चले जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ। कृष्णा, जिसे वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, आज इतनी निठुर हो गई। अकेली छोड़कर चली गई। बात कोई न थी, लेकिन दु:खी हृदय दुखती हुई आंख है, जिसमें हवा से भी पीड़ा होती है। निर्मला बड़ी देर तक बैठी रोती रही। भाई-बहन, माता-पिता, सभी इसी भांति मुझे भूल जायेंगे, सबकी आंखें फिर जायेंगी, फिर शायद इन्हें देखने को भी तरस जाऊं। बाग में फूल खिले हुए थे। मीठी-मीठी सुगन्ध आ रही थी। चैत की शीतल मन्द समीर चल रही थी। आकाश में तारे छिटके हुए थे। निर्मला इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी-पड़ी सो गई और आंख लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में, विचरने लगा। क्या देखती है कि सामने एक नदी लहरें मार रही है और वह नदी के किनारे नाव की बाठ देख रही है। सन्ध्या का समय है। अंधेरा किसी भयंकर जन्तु की भांति बढ़ता चला आता है। वह घोर चिन्ता में पड़ी हुई है कि कैसे यह नदी पार होगी, कैसे पहुंचूंगी! रो रही है

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